मिली हवाओं में उड़ने की सज़ा यारों,
कि मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारों।
~ वसीम बरेलवी
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हवाओं में उड़ने से रिश्ता जो कट गया यारों,
रिश्ता वो नहीं, वहम है वो मन का, यारों।
उड़ना चाहूँ, ज़मीन पर भी मैं रहना चाहूँ
निभा न सके इतना, कच्चा रिश्ता मेरा ये कैसा यारों?
हवाओं में उड़ने से क्या कटता रिश्ता कहीं?
ज़मीन पर आओ जब, यार वहीं है होता, यारों।
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The first Wasim Barelvi sher above was sent on a WhatsApp group in some context. In parallel, there was a discussion of what makes a ghazal.
I disagreed with the sentiment and thought it was time to try my hand at a ghazal. So, here’s my first attempt at a ghazal – पहली कोशिश अर्ज़ की है…
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