लफ़्ज़ों-वाले वादे चलो छोड़े देतें हैं
काहे अल्फ़ाज़ों का बोझ उठाए तुम और हम?
नज़रें कर लेतीं हैं गिरते-उठते जो,
दस्तखत कहीं लगते हैं ऐसे वादों को?

उँगलियाँ तुम्हारी छूकर निकल गई जो मुझे
उछाल गई एहसास, हज़ारों-करोड़ो से,
आँखों को चूमना, आंसुओं को पीना,
लबों के कोनो को तुम्हारे, मुस्कुराहटों में बदलना…
ये सारे अनकहे वादे भी तो हैं वादे ,
वो लफ्ज़ो वाले वादों के लिए वक्त अब कहाँ ?

आज बालों में तुमने हाथ फेरे थे जब,
साँसों ने मेरी एक कहानी थी सुनाई,
उस कहानी को आगे बढ़ाने के लिए भी ,
क्या वादे देने-लेने पड़ेंगे अब?